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मां की ममता की अनुभूति शायद सिर्फ एक मां ही समझ सकती है और इस ममता की कोई हद नहीं होती. एक मां अपने बच्चे के लिए क्या कर सकती है यह शायद वह भी नहीं जानती होगी क्योंकि जब बात बच्चे की आती है तो हर बार वह किसी नई हद से आगे बढ़ जाती है. आम लोगों के सामने एक मां की पार की हुई ये हदें छूना असंभव सा लगता है. कर्नाटक की इस नई-नवेली मां ने वह किया जो एक साधारण इंसान कभी सपने में भी नहीं सोच सकता. पर उस मां पर भी पिता के आशीष का साया था. असंभव सी लगने वाली यह कहानी जानकर किसी भी रोंगटे खड़े हो जाएं. कृष्णा नदी का उफनता हुआ पानी, उसमें एक पिता अपनी बेटी के लिए और एक मां जन्म लेने के लिए तैयार अपने बच्चे के लिए मौत के मुंह में सिर्फ उस नवजात की जिंदगी की खातिर अपनी जानें दांव पर लगाने का वह दृश्य हृदय विदारक नहीं, श्रद्धा से अपने सामने किसी को भी नतमस्तक कर देनेवाला था.
उस समय को याद करते हुए येल्लवा कहती हैं, “मुझे तैरना नहीं आता था. हम जब भी कपड़े धोने नदी पर जाते थे हम हाथ और पैरों को फैलाकर तैरने की कोशिश करते थे. हालांकि नदी में कूदते हुए एक बार विरोध किया लेकिन फिर भगवान का नाम लेकर कूद गई. अभी सुबह के 10 ही बजे थे, पानी भी बहुत अधिक ठंडा और दम घोटने वाला था. ऐसे में वह पानी करंट की सी अनुभूति दे रहा था. तब मेरे भाइयों ने मेरे शरीर के दोनों ओर सूखे लॉकी और बॉटल बांध दिए इससे नदी के उस भयानक पानी में भी आगे बह सकने में बहुत मदद मिली.”
पूरे समय येल्लवा का भाई लक्षमण उसके आगे और पिता हनुमप्पा उसके साथ-साथ तैर रहे थे. आगे बढ़ते हुए नदी का पानी भी बढ़ता रहा. कई बार ऐसा हुआ कि पानी के थपेड़े चेहरे पर पड़ते और मैं सांस भी नहीं ले पाती. शुरुआत में मैं तैर ही नहीं पा रही थी और पीठ के बल पलट गई. तब मेरे पिता ने मुझे पेट के बल तैर सकने के लिए प्रेरित किया.
एक वक्त ऐसा भी था जब जूट की रस्सी से उसके साथ बंधे लॉकी में पानी भर जाने के कारण उसका तैरना मुश्किल हो गया और वह नदी में लगभग डूबने लगी. तब उसके भाई और साथ आए लोगों ने उसे पकड़कर किनारे की तरफ खींचना शुरू किया. इस तरह सामान्यतया 20 से 25 मिनट का रास्ता येल्लवा के लिए 2 घंटे में पूरा हुआ.
किनारे पर पानी के स्तर का मुआयना कर रहे 5 लोगों ने जब तैरकर आ रहे कुछ लोगों को देखा तो मदद के लिए हाथ बढ़ाया लेकिन किनारे पर पहुंचकर सच्चाई जानने के बाद वे येल्लवा के पिता पर बहुत गुस्सा हुए. उन्होंने गुस्से में उनसे पूछा, क्या होता अगर इसे कुछ हो जाता तो?” इसपर तपाक से उसके पिता ने कहा, “क्या होता अगर गांव में डॉक्टर के अभाव में प्रसूति के समय इसे कुछ हो जाता तो?” इस जवाब ने उन लोगों को शर्मिंदा कर दिया और फिर गांव वालों ने उनकी पूरी मदद की.
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कर्नाटक के नीलकंटारायनागड्डे गांव की रहने वाली 22 साल की गर्भवती येल्लवा का पति उसके साथ नहीं रहता. उसके गांव में अस्पताल की मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. प्रसूति के लिए उसके गांव में परंगरात तरीके अपनाए जाते हैं. पर यह उसका पहला बच्चा था इसलिए वह गांव में प्रसूति कर अपने बच्चे के लिए कोई रिस्क नहीं लेना चाहती थी. इसलिए उसने पहले ही सोच रखा था कि कृष्णा नदी के पार अपने गांव से चार किलोमीटर दूर ..गांव के अस्पताल में प्रसूति करवाएगी.
उसके गर्भ का नौंवा महीना चल रहा था और यह वक्त मानसून का भी था. सबसे नजदीकी अस्पताल गांव से 4 किलोमीटर दूर केक्केरा में था जहां जाने का एकमात्र तरीका कृष्णा नदी पार करना था. पर दिक्कत यह थी कि मानसून के महीने में कभी भी बारिश से नदी का पानी सामान्य जलस्तर से बढ़ सकता था और उसके लिए नदी पार करने में मुश्किलें खड़ी कर सकती थीं. पति के छोड़े जाने के बाद मां-बाप के सिवा और कोई भी उसकी देखभाल के लिए नहीं है.
नदी का पानी बढ़ जाने और बाढ़ आने का अंदेशा बताकर अपने पिता और मां से उसने कई बार नदी पार कर अस्पताल के गांव में ही रहने की बात कही, पर उसके मायके के परिवार की हालत भी इतनी अच्छी नहीं है कि वे इतने दिनों के लिए अपना गांव छोड़कर कहीं बाहर रह सके. वे हमेशा इसे टालते रहे. जब येल्लवा की डिलीवरी का समय आया तो कृष्णा नदी का पानी सामान्य से 12-15 फीट ऊपर बह रहा था. ऐसे में कोई भी नाविक नाव देने या नदी पार कराने के लिए तैयार नहीं था. इस अंतिम समय में येल्लवा और उसके परिवार के पास बच्चे की खातिर उफनती हुई खतरनाक नदी को पार करने के सिवा और कोई चारा भी नहीं था.
येल्लवा के पिता ने उस वक्त साहस दिखाया. नदी के तट पर खड़े हुए उन्होंने येल्लवा से नदी में छलांग लगा देने को कहा लेकिन मरने के लिए नहीं नदी पार कर अपने बच्चे की जान बचाने के लिए. येल्लवा ने कभी तैरना नहीं सीखा था. एक बार को वह हिचकिचाई लेकिन पिता के बढ़ावा देने पर वह पिता और भाईयों समेते नदी में कूद गई. 45 मिनट तक कृष्णा नदी के उफनते बाढ़ के ठंडे पानी में वह तैरती रही. आखिरकार वह डूबने को हुई तो उसके भाई और पिता ने ही उसे खींचकर तट तक लाया. गांव वालों ने उसकी मदद की और आज वह और उसका बच्चा स्वस्थ है.
यह कोई बनी-बनाई कहानी नहीं है. कर्नाटक के एक छोटे से गांव की गरीब परिवार की साहसी औरत और उसके परिवार की सच्ची कहानी है. यह येल्लवा के साहस की कहानी तो है लेकिन येल्लवा के रूप में एक मां की एक और गौरवान्वित छवि है इसमें. साथ में अपनी बेटी के साथ हर हाल में रहने का वादा निभाने वाले एक साहसी पिता की कहानी भी है. सात बच्चों में येल्लवा सबसे बड़ी बेटी है. गरीबी इतनी ज्यादा है कि बाजरे की रोटी, सब्सिडी में मिले चावल और थोड़ी सी सब्जी के अलावे गर्भ के दौरान भी उसे कुछ खाने को नहीं मिला. उस दिन भी उसने प्याज की चटनी के साथ बाजरे की दो रोटियां ही खाई थीं. पर यह न येल्लवा का हौसला तोड़ सका, न उसके पिता का.
अपनी गरीबी से पार न पाने के कारण भले ही इस परिवार की यह मजबूरी बन गई हो लेकिन किसी भी सामान्य इंसान के लिए ऐसा कदम उठाना शायद कभी भी संभव नहीं होगा. इस महानता को सिर्फ एक मां और उसका साथ निभाने वाले पिता ही छू सकते हैं. इससे परे यह कमजोर मानी जाने वाली औरत के साहस और शक्ति की भी जीती-जागती मिसाल है.
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