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कहते हैं तालाब में बड़ी मछली ही छोटी मछली को खा जाती है. बाहुबलियों के बल प्रदर्शन के आधार पर अपने से कमजोर के अस्तित्व पर ग्रहण की बात तो हमेशा सोचनीय रहा है पर इस से इतर जो इसका एक और महत्वपूर्ण पक्ष है वह है ‘एक मछली का दूसरी मछली को खा जाना’. प्राकृतिक आपदाओं या प्राकृतिक मौत के अलावे मछलियों के लिए जो जालिम दैत्य होंगे वे प्रथम दृष्टया मानव ही होंगे. किन्तु यह उनकी गलतफहमी साबित होती है जब अपने ही बीच की एक बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है. महिलाओं के साथ भी आज कमोवेश कुछ ऐसी ही स्थिति है. एक स्वतन्त्र राष्ट्र बनने के साथ ही भारत में महिलाओं के सशक्तिकरण, उत्थान के लिए सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर बहस, कार्य होते रहे हैं, योजनाएं बनती और वे कार्य रूप में ढाली जाती रही हैं. बहुत हद तक ये कार्य और योजनाएं अपने मकसद में सफल भी रहे हैं. आज महिलाओं की सशक्त स्थिति इसका साक्ष्य बनते हुए इस सफलता को संदेह रहित बनाती हैं. किन्तु जैसे बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है वैसे ही आज कुछ मामलों में सशक्त हो चुकी महिलाएं ही महिलाओं के सशक्तिकरण में बाधा बन रही हैं, महिलाएं ही महिलाओं को गर्त में धकेल रही हैं.
महिला आयोग और महिला संस्थाओं के गठन के पीछे महिलाओं को सशक्त भूमिका में लाने के उद्द्येश्य को पुख्ता करना था. इसके पीछे यह सोच थी कि एक महिला ही महिला के दर्द को अच्छी तरह समझ सकती है. इसलिए एक महिला ही महिला के विभिन्न सामाजिक शोषणों, शोषकों से बचाने, निकालने में ईमानदार भूमिका निभा सकती है. वस्तुतः बदलते वक्त के साथ महिला आयोग तथा अन्य महिला संस्थाओं की कहानी भी तालाब में बड़ी और छोटी मछली की हो गई.
यह सही है कि महिलाओं की सुरक्षा और अधिकारों के लिए महिला आयोग प्रतिबद्ध है लेकिन दिल्ली पुलिस के खिलाफ धरने पर बैठे केजरीवाल को चारों तरफ से घेरने की तैयारी में कहीं न कहीं यह भी एक राजनीतिकरण नीति नजर आते हैं. आए दिन महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में महिला आयोग कहीं नजर नहीं आईं (शायद ही कभी इस तरह की प्रमुख भूमिका में नजर आती हैं). अभी पिछले दिनों एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार के मुद्दे पर भी महिला आयोग कहीं नजर नहीं आई पर आज युगांडा की इन दो महिलाओं के मुद्दे पर महिला आयोग का शोर है.
कभी शीला दीक्षित के सुर में सुर मिलाते महिला आयोग ने महिलाओं को अपनी सुरक्षा में तरतीब से कपड़े तक पहनने की सलाह दे डाली. आज वेश्यावृत्ति और नशे के रैकेट से जुड़े होने का आरोप झेल रही इन दो महिलाओं के अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध दिख रही हैं. शोर इतना है कि मामला देश से निकलकर अफ्रीकी देशों तक पहुंच गया और भारत के अफ्रीकी देशों से अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में मनमुटाव पैदा होने तक पहुंच गए. आखिर महिला आयोग में अचानक इतनी सक्रियता कैसे आ गई और बलात्कार पीड़ित उस विदेशी महिला के लिए क्यों नहीं आई. कई ऐसे मामले होते हैं जहां महिला संगठन ही महिलाओं के मुद्दों को कहीं पीछे छोड़ देते हैं. ऐसे संगठनों के लिए आज महिला उत्थान से अधिक वरीयता राजनीतिक मुद्दे रखते हैं. महिला जेलों में राजनीतिक सरोकारों के लिए महिला कैदियों की दुर्दशा के लिए महिला जेलर ही शैतान बन जाती हैं. सामान्य परिस्थितियों में भी महिलाएं ही अक्सर महिलाओं की प्रतारणा करती हैं. दहेज ह्त्या, भ्रूण ह्त्या जैसे मामलों में परिवार की बड़ी-बूढ़ी औरतें ही लिप्त होती हैं जिसमें अधिकांशत: महिलाओं द्वारा प्रमुख (बाहुबली) की भूमिका में आने की मंशा होती है. हालांकि अब यह परिस्थिति थोड़ी बदल रही है फिर भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता. महिला आयोग जैसे महिला संगठन इसी का बड़ा राजनीतिक रूप ले रही हैं. महिला सशक्तिकरण भारतीय समाज की जरूरत है लेकिन यह सशक्तिकरण महिलाओं की सशक्त भागीदारी की मांग करता है. महिला आयोग जैसे संगठनों के लिए इस भूमिका और इसकी जिम्मेदारी को समझने की जरूरत है.
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