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समाज में मर्द शब्द को ताकत का समानार्थी माना जाता है पर उसके मन के भीतर एक भय होता है जो उसे समाज में कुछ नियम बनाने के लिए बाध्य करता है. पुरुष जाति पर सालों से यह आरोप लगता आया है कि वो स्त्री जाति पर लगाम कसने की जद्दोजहद में लगा रहता है पर यह पूरा सच नहीं. इसके वास्तविक अर्थ को समझने में शायद पुरुष और स्त्री दोनों को थोड़ी सी आपत्ति हो.
पुरुष समाज इस धारणा पर अमल करता आया है कि स्त्रियों को अपने अंगों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए और ऐसे कपड़े पहनने चाहिए जो स्त्री को शालीनता की मूरत के रूप में प्रदर्शित करें. स्त्री जाति पुरुष की इस धारणा को अपने ऊपर अंकुश लगाना मान लेती है जो कि वास्तविक सच नहीं. सच यह है कि पुरुष जाति स्वयं अपने लिए ऐसी लक्ष्मण रेखाएं खींच रही होती है जो उसे मर्यादाओं, संस्कारों, नैतिक कर्तव्यों के नाम पर उसके भीतर पैदा हो रही उत्तेजना की स्थिति पर नियंत्रण करवा सके.
यदि ऐसा ना होता तो सड़क पर चल रहा नैतिकता के हजार गुणों से परिपूर्ण पुरुष भी राह चलती किसी भी स्त्री के साथ अपने भीतर पैदा हो रही उत्तेजना को मिटा देता. पुरुष में स्त्री के अंग को देख उत्तेजना पैदा होना प्राकृतिक प्रवृत्ति है और इस प्रवृति में परिवर्तन होने की उम्मीद उतनी ही है जैसे महासागर में एक पानी की बूंद तक ना होने की कल्पना की जाए. इसी प्राकृतिक प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने के लिए पुरुष समाज अपने लिए कुछ सीमाएं बनाता है ना कि स्त्री जाति के लिए. स्त्रियों के लिए असीमित आजादी की मांग के लिए विवादास्पद बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन काफी जद्दोजहद करती हैं क्योंकि उनका मानना है कि स्त्रियों को असीमित आजादी मिलनी चाहिए.
तस्लीमा नसरीन की सोच के किसी भी नजरिए पर टिप्पणी करने से पहले आजादी शब्द के अर्थ को स्पष्ट कर देना जरूरी है. आजादी अपने आप में पूर्ण शब्द है और यह कभी भी असीमित या सीमित नहीं होती है. यह केवल आजादी होती है या इसके विपरीत बंधन या दासता शब्द होता है. तस्लीमा नसरीन के नजरिए अनुसार यदि ऐसे समाज का निर्माण किया जाए जहां स्त्री अपने आपको स्वयं हर बंधन से आजाद कर दे और पूर्ण आजादी के साथ समाज में रहने लगे तो ऐसे में पुरुष समाज भी स्वयं के लिए निर्धारित की गई उस लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर देगा जो स्त्री को देखकर उसके भीतर पैदा हो रही उत्तेजना पर नियंत्रण करने में उसकी मदद करती है.
बंधन या नियंत्रण के बिना किसी भी समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है. यदि ऐसे समाज की कल्पना भी की जाए तो इसमें सबसे अधिक आघात स्त्री सुरक्षा को ही पहुंचेगा. क्योंकि स्त्री ऐसे स्वतंत्र समाज में उन भेड़ियों के बीच आकर खड़ी हो जाएगी जो मर्यादाओं, संस्कारों, नैतिक कर्तव्यों के नाम पर अपनी शारीरिक उत्तेजना पर नियंत्रण करते हैं.
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