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तन किसी साड़ी से लिपटा हुआ, माथे पर लगी लाल बिंदी और हाथों में रंग बिरंगी चूड़ियां, स्त्री के इस रूप को देखते ही मन में ‘शालीनता’ की भावना का उदय होता है पर जब वो ही स्त्री शालीनता का दामन छोड़ नए रूप में नजर आती है तो कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं होती हैं जिन्हें हम अत्याचार का नाम देते हैं पर शायद वो स्वाभाविक प्रतिक्रियाएं होती हैं.
यदि आग के पास घी को लाया जाए तो ऐसे में जाहिर सी बात है कि घी पिघलेगा. कुछ इसी तरह स्त्री और पुरुष के बीच होने वाली घटना एक स्वाभाविक प्रकिया है. सालों पहले जब वैश्वीकरण शब्द भारतीय समाज से कोसों दूर था तब उस समय स्त्री शालीनता को प्रकट करने वाली वेशभूषा पहना करती थी. उस समय में भी पुरुष स्त्री की बौद्धिक प्रतिभा की तुलना उसकी वेशभूषा से किया करता था और यही सोचा करता था कि स्त्री शालीनता का दूसरा नाम है. पर जैसे-जैसे समय में परिवर्तन हुआ अर्थात वैश्वीकरण का आगमन भारतीय संस्कृति में हुआ वैसे ही वेशभूषा में परिवर्तन होने की शुरुआत हुई. स्त्री और पुरुष दोनों के पहनावे में बदलाव आया पर स्त्री पहनावे ने आग के ताप में घी को पिघलाने का काम किया जिसे हमने मर्दवादी समाज की कठोरता का नाम दे दिया पर वास्तव में यह स्वाभाविक प्रकिया थी जिसमें बदलाव शायद ही संभव था.
आज भी पुरुष समाज स्त्री के बौद्धिक स्तर की तुलना उसके देह के लिबास से करता है पर कहीं न कहीं उसके नजरिए में बदलाव हुआ. शालीन लगने वाली स्त्री अब उसे प्रयोग योग्य सामान लगने लगी. उपर्युक्त लिखी गई बातों का अर्थ कदापि यह नहीं है कि स्त्री को मर्दवादी समाज के नजरिए से अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए और वो लिबास धारण करना चाहिए जिसमें उसे मर्दवादी समाज देखना चाहता है. पर हां स्त्री को ऐसी वेशभूषा जरूर धारण करनी चाहिए जिसमें वो सभ्य लगे. सुंदर या आकषर्क दिखने का प्रयास करना निंदनीय नहीं है. इसके लिए महिला और पुरुष, दोनों ही कोशिश करते हैं तथा खुद को आकर्षक बनाने की जद्दोजहद समान रूप से करते हैं. सजने-संवरने और दूसरों को आकर्षित करने की चाहत भी दोनों में ही होती है पर जब यही स्थिति समाज की कुछ मर्यादाओं का उल्लंघन करती है तो स्त्री समाज उसे अप्राकृतिक घटनाओं का नाम देता है. वास्तव में स्त्री दूसरों को आकर्षित करने की भावना में अधिकांशः बाजार का शोपीस बनकर रह जाती है.
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