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कभी सुख-दुख की परिभाषा लिखी, कभी दंगों का अर्थ समझाया इन तमाम परिभाषाओं को समझाने के बाद भी स्त्री नाम का दर्द समझाना नहीं भूले. हिन्दी साहित्य में ऐसे लेखकों की कमी नहीं है जिन्होंने स्त्री हित के लिए अपनी कलम को चलाया है पर बहुत बार ऐसा भी हुआ है जब हिन्दी साहित्य में कुछ शब्दों के इस्तेमाल से स्त्री नाम को आघात पहुचा है.
यदि हिन्दी साहित्य में स्त्री चिंतन को समझना है तो इसके लिए बेहद जरूरी है कि स्त्री के प्रति समाज के नजरिए को समझा जाए. आज भी हिन्दी साहित्य का इतिहास-लेखन अपनी मूल धारणाओं में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से आगे नहीं जा पाया है.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अधिकतर इतिहास ग्रंथ स्त्री को पहचानने के सम्बन्ध में एक साफ-सुथरा-सा गणित रखते हैं. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी स्त्री को हर दर्जे में रखते हैं और कहते हैं कि वो एक पत्नी है, एक मां है, बेटी है तमाम रिश्ते उसमें हैं. पर यदि ध्यान से देखा जाए तो वो अपने आप में कुछ नहीं है. हिन्दी साहित्य का पहला व्यवस्थित इतिहास लिखने वाले आचार्य शुक्ल की सबसे बड़ी कामयाबी इस बात में रही कि उन्होंने हिन्दी जनमानस में इस बात को पूरे विश्वास के साथ बैठा दिया कि यहां की स्त्रियां मानसिक विकास में सामान्य से निचले स्तर की रही हैं.
कुछ हिंदी साहित्यकारों ने स्त्रियों को आकर्षण की वस्तु भी बताया है और यहां तक स्त्रियों के लिए ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया जिससे समाज में उनका स्तर कम हुआ. पुरुष को को प्रेम जाल में फंसाने के लिए स्त्री को दोषी बताया गया पर इसके बावजूद भी हिन्दी साहित्य ने स्त्री के दर्द को समझा है. याद आ जाता है ‘दिव्या’ उपन्यास जिसे यशपाल ने लिखा है. जिसमें लिखा गया है कि ‘समाज में स्त्री की स्थिति को देखते हुए कोठे पर बैठी वेश्या उससे ज्यादा बेहतर लगती है क्योंकि वो किसी भी प्रकार के बंधन में नहीं बंधी है पर एक समाज में रहने वाली स्त्री तमाम बंधनों में अपने जीवन की एक-एक सांस लेती है’.
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