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चित्रलेखा एक ब्राह्राण विधवा थी. उसके पति की मृत्यु उस समय हुई जब वो अठारह वर्ष की थी फिर क्या था उसने अपने सम्पूर्ण जीवन में तपस्या करने का फैसला ले लिया पर ज्यादा अधिक दिनों तक वो अपनी तपस्या को जारी ना रख सकी. कृष्णादित्य नामक पुरुष से चित्रलेखा को आकर्षण हो गया और दोनों के बीच प्रेम संबंध स्थापित हो गए. आगे चलकर जब चित्रलेखा के माता-पिता को इस बात का पता चला कि वो कृष्णादित्य के बच्चे की मां बनने वाली है तो उसके माता-पिता ने उसे घर से बाहर निकाल दिया. चित्रलेखा और कृष्णादित्य सड़कों पर एक भिखारी की तरह रहने लगे. समाज की भत्सर्ना और अपमान के कारण कृष्णादित्य ने मौत को गले लगा लिया.
चित्रलेखा एक बार फिर से तन्हां जीवन गुजारने लगी. इसी दौरान उसने नृत्य और संगीत कला सीखी जिसके बाद चित्रलेखा एक मशहूर नर्तकी हो गई. एक दिन चित्रलेखा के जीवन में बीजगुप्त नाम का युवा आया जिसने चित्रलेखा के नृत्य के बाद उसे अपने साथ चलने को कहा पर चित्रलेखा ने ना कर दिया.
चित्रलेखा के ह्रदय में बीजगुप्त की स्मृति प्रबल होती जा रही थी जिस कारण उसने बीजगुप्त के साथ रहने का रहने का फैसला किया. यह कहानी उपन्यासकार भगवतीचरण वर्मा के ‘चित्रलेखा’ उपन्यास का अंश है. ‘चित्रलेखा’ उपन्यास के इस अंश की याद तब आई जब समाज में स्त्रियों की दशा पर बात हो रही थी. जब उपन्यास के इस अंश को ध्यान से पढ़ा जाता है तो इस बात का आभास होता है कि कहीं ना कहीं एक औरत ही अपनी तमाम जिंदगी पुरुष के सहारे की खोज में लगी रहती है और जैसे ही उसे पुरुष का सहारा मिलता है वैसे ही उसका हाथ थाम लेती है.
कभी-कभी औरत की जिंदगी उस एक साल के बच्चे के समान लगती है जो अपने माता-पिता के बिना चलने का प्रयास भी नहीं कर सकता है. ऐसे ही एक औरत जिसने अपने ह्रदय के रोम-रोम में इस बात को बैठा लिया है कि यदि उसे पुरुष का सहारा नहीं मिला तो वो अपनी जिंदगी का सफर तन्हां तय नहीं कर पाएगी. औरत की जिंदगी में पुरुष नाम का सहारा क्यों? इस विषय में हमारे लेखों का सिलसिला जारी रहेगा.
आपकी राय हमारे लिए जरूरी है. आपको क्या लगता है कि वास्तव में एक औरत अपनी जिंदगी में पुरुष नाम के सहारे की तलाश करती रहती है ?
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