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आज जब खुद को आइने में देखती हूं तो सोचती हूं क्या मैं वही हूं जिसने कभी जीने की चाहत छोड़ दी थी और चाहती थी कि इस दुनिया से बहुत दूर कहीं दूर चली जाऊं जहां कोई भी मुझे न पहचानता हो. ऐसा कहना है ‘ईयर ऑफ द टाइगर’ नाम के उपन्यास की लेखक सोहेला अब्दुलाली का. आप ये पढ़ कर थोड़ा सोच में पड़ जाएंगे कि ये क्या लिखा है कभी मरने की चाहत रखने वाली आज एक किताब कैसे लिख सकती है. पर ये सच है कि कभी मरने के बारे में सोचने वाली लड़की आज एक सफल लेखिका के रूप में उभर कर सामने आई है.
आज हम आपको एक ऐसी ही लड़की की कहानी बताने जा रहे हैं जिसको पढ़ने के बाद आप ये सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि क्या सचमुच ऐसा हो सकता है ?
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सोहेला अब्दुलाली जब मात्र 17 साल की थीं तब वो अपने परिवार के साथ मुंबई में रहती थीं. एक दिन जब वो अपने एक पुरुष दोस्त के साथ घर के पास की पहाड़ी पर घूमने गई थीं तब अचानक चार-पांच लोग आए और उन्हें पकड़ कर जबर्दस्ती एक जगह पर ले गए और वहां ले जाकर उन लोगों ने सोहेला के साथ कई घंटों तक रेप किया और उनके दोस्त को बुरे तरीके से पीटा भी. बाद में वो लोग उन लोगों को मार देना चाहते थे लेकिन आपस में बहस करने के बाद उन्हें जिंदा छोड़ दिया. लड़खड़ाते हुए जख्मी हालत में वो घर पहुंचीं, लेकिन उनका परिवार बहुत अच्छा था और उनके परिवार ने उन्हें संभाला.
सोहेला अब्दुलाली कहती हैं कि ऐसे तो मात्र 17 साल की उम्र में मैंने सब कुछ खो दिया था, लेकिन उस मुश्किल घड़ी में मैंने अपने परिवार का सच्चा प्यार पाया था. कई महीनों तक मैं खामोश रही उस घटना को लेकर. समाज में चुप्पी पसरी हुई थी भ्रम का माहौल था कि अचानक 3 साल बाद मैंने अपने नाम से एक लेख महिलाओं की पत्रिका मानुषी में लिखा. इस लेख ने मेरे परिवार में तो खलबली पैदा की ही थी, इसने समाज के नारीवादी आंदोलनों पर भी खासा असर डाला था.
उन्होंने कहा कि आज फिर 32 साल बाद जब मैं एक सफल लेखिका बन गई हूं फिर भी दिल्ली के रेप केस ने मुझे अपने जख्म याद दिला दिए. उन्होंने कहा कि रेप केस का प्रतीक बनना बहुत अच्छी बात नहीं है लेकिन ये कोई शर्म की भी बात नहीं है. उन्होंने कहा कि आज उस घटना को बीते एक युग बीत गया लेकिन समाज की सोच आज भी वही है जो उस समय थी .
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रेप एक बहुत डरावना अनुभव होता है जिसे कोई भी लड़की बयां नहीं कर सकती है. लेकिन भारतीय महिलाओं के मन में रेप को लेकर बहुत तरह की आशंकाएं हैं. सोहेला का मानना है कि ये इतना डरावना भी नहीं होता है. ये डरावना इसलिए होता है कि आप पर हमला होता है, आप डर जाती हैं कि कोई और आपके शरीर पर काबू करता है और आपके सबसे करीब जाकर आपको चोट पहुंचाता है. यह इसलिए डरावना नहीं होता है कि इसमें आपके सम्मान को चोट पहुंचती है, यह इसलिए भी डरावना नहीं होता है कि ऐसी घटनाओं से आपके पिता या भाई के सम्मान को ठेस पहुंचती है. सोहेला का मानना है कि ये अवधारणा गलत है क्योंकि आप जितना डरेंगी ये पुरूषवादी समाज आप को उतना ही डराएगा. औरतों को चाहिए कि वो इससे डरे नहीं बल्कि इसका मुकाबला करें.
सोहेला का कहना है कि हमारी जिम्मेदारी नई पीढ़ी की परवरिश कर रहे लोगों के अंदर ऐसी भावनाएं जगाना है कि अगर कोई पुरूष ऐसा करता है तो उसे सजा दी जाएगी और इसके साथ उन सभी को सजा दी जाएगी जिन्होंने ऐसा होने के बावजूद दोषियों को जाने दिया. ऐसा होने के बाद ही हमारी आज की पीढ़ी खास कर लड़कियां इस समाज पर विश्वास कर पाएंगी और साहस के साथ जी पाएंगी .
अंत में हम यही कहेंगे कि जिस तरह सोहेला ने अपने को हारने नहीं दिया उसी तरह उन लड़कियों को भी नहीं हारना चाहिए जो इस तरह की घटना की शिकार होती हैं.
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